Monday, August 6, 2012

राहुल गांधी और मिशन-बिहार

फरवरी की शुरुआत में जब राहुल गांधी बिहार गए थे, तभी ये संकेत साफ हो गए थे कि बीस बरस से अलसाई पड़ी कांग्रेस यह साल विदा होते-होते वहां करवट लेने वाली है। बिहार को लेकर राहुल गांधी का उत्साह फिलहाल जिन लोगों को हकीकत से परे लग रहा है, उनकी शतुरमुर्गी सोच आने वाले नवंबर में ही असलियत का अहसास कर पाएगी। कोई चाहे तो आसानी से यह भूल सकता है कि पांच बरस पहले के बिहार ने भी न तो कांग्रेस को सिरे से नकारा था और न ही कांग्रेस-विरोधी राजनीतिक दलों की बलैयां ली थीं। लेकिन दो हजार पांच से दस के बीच तो कोसी में बहुत पानी बह गया है और अब इतना तो सब मान रहे हैं कि इस बार बिहार न तो नीतीश कुमार और उनके साथ खड़ी नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का स्वागत करने को तैयार है और न ही उसे लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की मतलबी-जोड़ी पर यकीन हो पा रहा है।

और, पांच साल पहले भी इन सबकी असली हालत क्या थी? 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए थे। उस साल फरवरी में हुए चुनाव में ऐसे लटकनपच्चू नतीजे आए कि कोई सरकार ही नहीं बन पाई और विधानसभा भंग हो गई। अक्टूबर-नवंबर में चार चरणों में दोबारा चुनाव हुए। लोगों ने लालू-राबड़ी के पंद्रह बरस से आजिज आ कर सिंहासन नीतीश कुमार को सौंप दिया। इस बात से क्या मुंह चुराना कि फरवरी में हुए चुनाव में कांग्रेस को 10 सीटें मिली थीं और अक्टूबर में चुनाव हुए तो सीटें 9 रह गईं। लेकिन क्या यह भूल जाएं कि फरवरी में कांग्रेस ने 84 उम्मीदवार उतारे थे और अक्टूबर में सिर्फ 51 ही? फरवरी में कांग्रेस को करीब 15 प्रतिशत वोट मिले थे। अक्टूबर में वे बढ़ कर 29 प्रतिशत हो गए। 84 सीटों पर लड़ने के बावजूद फरवरी में कांग्रेस को 12 लाख 23 हजार वोट मिले और आठ महीने बाद 33 उम्मीदवार कम उतारने के बावजूद उसे 14 लाख 35 हजार वोट मिल गए। पांच बरस पहले के बिहार में आठ महीने के भीतर सवा दो लाख वोटों की यह बढ़ोतरी भी जिन्हें 2010 के नवंबर की हवा का संकेत नहीं देती हो, उनकी राजनीतिक समझ को प्रणाम करने के अलावा क्या किया जा सकता है?

2005 की असलियत यह है कि तब फरवरी और अक्टूबर-नवंबर के बीच बिहार में कांग्रेस के अलावा सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और युनाइटेड जनता दल की ही राजनीतिक जमीन मजबूत हुई थी। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, वाम दलों और निर्दलियों के नीचे से जमीन खिसक गई थी। लालू को फरवरी में 75 सीटें मिली थीं और नवंबर आते-आते वे 54 पर रह गए थे। पासवान को फरवरी में 29 सीटें मिली थीं, नवंबर में तकरीबन सभी सीटों पर लड़ने के बावजूद वे 10 पर झूल रहे थे। फरवरी में 17 सीटें जीत गए निर्दलीय नवंबर में 10 पर सिमट गए थे। लालू के राश्ट्रीय जनता दल को फरवरी में 61 लाख से ज्यादा वोट मिले थे, अक्टूबर आते-आते वे 55 लाख रह गए। उन्हें सात महीनों में सात लाख वोटों का घाटा हो चुका था। पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को फरवरी में 31 लाख वोट मिले थे और अक्टूबर में वह 26 लाख पर आ टिकी। पासवान भी इस बीच पांच लाख वोट खो चुके थे। मार्क्‍सवादी पार्टी को इस बीच हजारों वोटों का नुकसान हो चुका था और कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ से भी 65 हजार वोट फिसल चुके थे। हां, भाजपा की सीटें जरूर 37 से 55 हो गई थीं और जदयू 55 से बढ़ कर 88 पर पहुंच गई थी। यानी सेकुलर पार्टियों में से अगर किसी पर बिहार के मतदाता का भरोसा तब बढ़ा था तो वह कांग्रेस ही थी।

अक्टूबर-नवंबर ’05 के चुनाव की कुछ सच्चाइयां और जान लीजिए। कांग्रेस के तब सिर्फ नौ उम्मीदवार ही विधानसभा की दहलीज तक पहुंच पाए थे, मगर 33 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जहां कांग्रेसी उम्मीदवार बहुत कम वोटों के अंतर से दूसरे क्रम पर रहे थे और उन्हें 30 से 45 हजार तक वोट मिले थे। कोलगोंग में पड़े वोटों का 36 प्रतिशत से ज्यादा कांग्रेस को मिला, लेकिन 45 हजार से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार पिछड़ गया। बगहा में 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट कांग्रेस को मिले, लेकिन 42 हजार से अधिक वोट भी उसे जिता नहीं पाए। सिमरी बख्तियारपुर में कांग्रेस को साढ़े 37 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट फिसल गई। मांझी में कांग्रेस को 40 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन सीट हाथ से निकल गई। वारसलीगंज में 41 प्रतिशत से ज्यादा वोट पा कर भी कांग्रेसी उम्मीदवार नहीं जीता। पांच बरस पहले किनारे पर डूबी कांग्रेसी किश्ती का यह किस्सा बेतिया, चनपतिया और बचवाड़ा से ले कर बरगिहा, फतुआ और पटना-पश्चिम तक पसरा पड़ा है।

2005 में बाकी राजनीतिक दलों की हालत क्या थी? जदयू के 51 उम्मीदवार हारे थे और उनमें से 9 की तो जमानत जब्त हो गई थी। भाजपा के 47 उम्मीदवार घर बैठ गए थे और उसके भी 9 प्रत्याशियों ने जमानत खो दी थी। लोजपा के तो 193 उम्मीदवार बुरी तरह हारे थे और उनमें से 141 जमानत भी नहीं बचा पाए थे। राजद के 121 उम्मीदवार लालू की माला जपने के बावजूद हारे थे और 8 की जमानत जब्त हुई थी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी मैदान में थी और उसके 208 उम्मीदवार बेहद बुरी हालत में हारे थे। इनमें से भी 201 की तो जमानत भी नहीं बची थी। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी भी इतराते हुए बिहार के मैदान में उतरी थी और उसने 158 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए थे। 156 हार गए और उनमें से 150 की जमानत भी जाती रही। कम्युनिस्ट पार्टी का तब सिर्फ एक उम्मीदवार जीता था और मार्क्‍सवादी पार्टी के महज तीन। आज अपने को सूरमा बता रहे राजनीतिक दलों की हालत तो पांच बरस पहले के बिहार में भी यह थी कि बहुत-सी सामान्य सीटों पर राजद की भद्द पिट गई थी। मसलन, मुजफ्फरपुर में उसके उम्मीदवार को महज पौने तीन हजार वोट मिले थे। लोजपा को भी ज्यादातर सीटों पर दो-एक हजार वोट ही मिले थे। मसलन, धनाहा जैसी सीट पर भी उसे सिर्फ तेरह सौ वोट से संतोश करना पड़ा था। बसपा की हालत तो यह थी कि उसके उम्मीदवार को दरभंगा में 860 और आदापुर में 926 वोट मिले। भोर, भैरवा, राजौली, राजगीर और बरबिगहा जैसी आरक्षि‍त सीटों तक पर बसपा इतनी बुरी तरह हारी कि उसे एक से दो हजार के ही बीच वोट मिले। लोजपा और सपा भी ज्यादातर आरक्षि‍त सीटें बुरी तरह हारे। सपा की झोली में तो बहुत-सी जगह पांच-सात सौ वोट भी मुश्किल से पड़े। मोतिहारी जैसे निर्वाचन क्षेत्र में भी उसे 692 वोट ही मिले। पटना-पूर्व, दिनारा और पालीगंज में भी सपा का आंकड़ा पांच सौ के आसपास ही झूलता रहा।

हारे तो कांग्रेस के उम्मीदवार भी। उनमें से कुछ की जमानतें भी जब्त हुईं। लेकिन फर्क यह है कि बारसलीगंज में 36 हजार 851 वोट पाने के बाद भी कांग्रेस हार गई। रक्सौल में 23 हजार, घुरैया में 21 हजार, चकई में साढ़े 18 हजार और भैरवा में 15 हजार वोट पा कर भी कांग्रेस के उम्मीदवार नहीं जीत पाए। हरसिद्धी में कांग्रेसी उम्मीदवार की जमानत 13 हजार से ज्यादा वोट पाने के बाद भी जब्त हो गई। ऐसी और भी कई मिसालें हैं। कांग्रेस को छोड़ कर कोई ऐसा राजनीतिक दल नहीं था, जिसके उम्मीदवार की जमानत किसी-न-किसी आरक्शित सीट पर 2005 में जब्त नहीं हुई। लेकिन कांग्रेस के किसी भी अनुसूचित जाति-जनजाति प्रत्याशी ने अपनी जमानत नहीं गंवाई। कांग्रेसी उम्मीदवारों की हार भी काफी कम अंतर से हुई थी। मांझी, बनियापुर, मसरख, गरखा और वैशाली जैसे कई इलाकों में कांग्रेस बहुत ही कम फर्क से हारी। इनमें से हर जगह जदयू या भाजपा जीती। और, जहां-जहां कांग्रेस जीती, काफी वोटों से जीती। बहादुरगंज में कांग्रेस 43 हजार वोटों से जीती। अमौर में साढ़े 14 हजार और कोरहा, शेखपुरा और सिंघिया में 12 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से कांग्रेसी प्रत्याशी जीते थे।

बिहार में पंद्रह बरस के लालू-कुराज में करीब आधा वक्त लालू ने राज किया और बाकी आधा वक्त उनकी अर्धांगिनी राबड़ी देवी ने। अब पांच साल से लोग नीतीश-भाजपा की नटबाजी भी देख रहे हैं। बिहार की राजनीतिक रस्सी पर चलने का दोनों का संतुलन पिछले कुछ महीनों में पूरी तरह गड़बड़ हो गया है। पांच साल पहले बिहार के जिन लोगों ने लालू और पासवान को आपस में तू-तू-मैं-मैं करते अपनी आंखों से देखा है, क्या वे आसानी से उनकी गलबहियों पर ऐतबार कर लेंगे? इसलिए, बिहार के बदलते मत-समीकरण के ताजा दौर में, राहुल गांधी वहां कांग्रेस की सीटों को तीन अंक तक पहुंचाने का ब्लू-प्रिंट अगर तैयार कर रहे हैं, तो आज उसे मजाक में उड़ा देने वाले, इस साल की सर्दियां आते-आते अपने को राजनीतिक बर्फ में बुरी तरह ठिठुरता हुआ भी पा सकते हैं। पिछले पांच साल में बिहार का माहौल बहुत बदल गया है। युवा और दलित वर्ग में राहुल गांधी की पैठ ने समाजशास्त्रियों को भी आंखें मसलने पर मजबूर कर दिया है। बिहार का अल्पसंख्यक लालू-पासवान की टोपियों की असलियत समझ गया है। उसे नीतीश के ताजा मुखौटे पर भी यकीन नहीं हो रहा है। 2010 में राहुल के मिशन-बिहार को संजीदगी से लेना इसीलिए जरूरी है।

कैसे थमे खबरों का कारोबार ?

अच्छा हुआ कि मई 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान ज्यादातर मीडिया-समूहों ने नंगई की सारी हदें पार कर दीं। अगर ऐसा न होता तो अंधेरे कोनों में पेड-न्यूज का बिस्तर अभी पता नहीं कितने अरसे इतनी ही बेशर्मी से गर्म होता रहता? लेकिन क्या यह धंधा इसी चुनाव से शुरू हुआ था और क्या पेड-न्यूज की कारस्तानी सिर्फ राजनीतिक दुनिया तक ही सीमित है? क्या सिर्फ यह हल्ला मचा लेना ही काफी है कि पेड-न्यूज के काले धंधे को बंद किया जाए? आखिर वह मट्ठा कौन-सी हांडी में रखा है, जिससे इस धंधे की जड़ें चौपट हो सकती हैं?

खबरों को प्रभावित करने की कोशिशें जमाने से होती रही हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। मुझे नहीं लगता कि कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब यारी-दोस्ती के नाम पर, खाने-पीने के नाम पर, होली-दीवाली के नाम पर, खबरों में तोड़-मरोड़ नहीं होती रही होगी। तीस साल पहले जब मेरे जैसे लोग पत्रकारिता में आए थे तो पैसे के लेन-देन की बातें सुनने को नहीं मिलती थीं, लेकिन अपनी-अपनी राजलीलाओं या रामलीलाओं की खबरें और तसवीरें छपवाने के लिए संपादक या संवाददाता के घर खारी बावली से चावल-मसाले भिजवाने के किस्से दबे-छिपे तब भी सुनने को मिलते रहते थे।

उस जमाने के राजनीतिक अखबारनवीसों से अपने संबंध बनाए रखने के लिए अगर ज्यादा से ज्यादा कुछ करते थे तो रात्रि-भोज और रस-पान का थोड़ा-बहुत इंतजाम। हां, व्यापार-जगत, खेलों की दुनिया और फिल्म-जगत कवर करने वाले पत्रकारों को तब शायद थोड़ी ज्यादा सहूलियतें मिल जाया करती थीं। पत्रकारिता में लिफाफा-संस्कृति की शुरुआत अगर कहीं से हुई तो फिल्म-पत्रकारिता से और फिर व्यापार-पत्रकारिता से। मुझे याद है कि किस तरह ऐन वक्त तक लिफाफा नहीं मिलने पर एक नामी फिल्म समीक्षक ने उस जमाने में आई रेखा की हिट फिल्म "खूबसूरत" की अपने अखबार में रेड़ पीट दी थी। इस दौर में व्यापार-पत्रकारिता करने वाले संवाददाताओं में से ज्यादातर ने अपने गुट बना रखे थे और उन्हें प्रेस कांफ्रेंस में लिफाफे मिलने शुरू हो गए थे।

लेकिन दुनिया तेजी से बदलने लगी थी। 1985-86 आते-आते प्राथमिकता के आधार पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के शेयर नामी संपादकों और संवाददाताओं को मिलने की बातें होने लगीं। जिनके दर्शन कर मुझ जैसे कस्बाई बालक अपने को दिल्ली-मुंबई में धन्य समझते थे, उनके बारे में ऐसी-ऐसी बातें सुनने को मिलने लगीं कि मानने को मन नहीं करता था। अस्सी-नब्बे के दशक में तेजी से अपना विस्तार कर रही निजी कंपनियों ने अपने झोले से शेयर निकाल-निकाल कर मीडिया-जगत में बांटने शुरू कर दिए और जिन्हें शेयर-कारोबार की समझ थी, उनमें से शायद ही किसी ने तब बहती गंगा में हाथ धोने से गुरेज किया होगा। उस दौर में जीन्स पहन कर पत्रकारिता में नई आचार संहिता की शुरुआत करने वाले दिग्गज तो खैर कई कंपनियों के शेयर-धारक हो ही गए थे, मगर इंदिरा गांधी से अपनी करीबी को ले कर इतराने वाले और बाद में भारतीय जनता पार्टी का भगवा थाम कर प्राण दे देने वाले एक परंपरावादी बुजुर्ग संपादक भी अपने सामने नाचते शेयर-पत्र देख कर ऐसे स्खलित हुए कि बड़े-बड़े हकबका गए।

अब कैसे मान लिया जाए कि तब के धन्ना सेठों की कंपनियों को अपने हाथ-पैर पसारने में मीडिया जगत की तत्कालीन हस्तियों से मदद नहीं मिली होगी? और, आजादी के बाद देश का मीडिया कब इतना आजाद था कि अपने मालिक के इशारे पर खबरों में जोड़-घटाव का काम नहीं करता होगा? बावजूद इसके कि संपादकों और पत्रकारों की आंखों का पानी काफी बाकी था, क्या ऐसे संपादकों की कोई कमी थी जो हर सुबह मालिक या उसके रिश्तेदारों के पैर छूने जाया करते थे? क्या ऐसे मालिकों की कोई कमी थी, जो गैर-मीडिया कारोबार करने वाले अपने मित्रों को अपने अखबार के जरिए हर तरह की मदद मुहैया कराया करते थे? आखिर इसे किस पेड-न्यूज के दायरे में रखेंगे आप?

विज्ञापनों की दुनिया से अपना जलवा शुरू करने के बाद संपादक बन गए और बाद में शिवसैनिक तक की गति को प्राप्त हुए एक नामी-गिरामी चेहरे ने तो कला की दुनिया तक को नहीं बख्षा था। आज हुसैन समेत तमाम कलाकारों की कृतियां यूं ही करोड़ों में नहीं बिक रही हैं। इस शख्स ने तब अपनी पत्रिका के पन्नों पर मुहिम चलाई थी कि कलाकृतियों में निवेश से जितना फायदा भविष्य में होगा, न जमीन में निवेश से होगा, न सोने में निवेश से। उस दौर में जिन कलाकारों का महिमा-मंडन हुआ, उनके पीछे कौन-सी आर्ट-गैलरियां थीं? कलाकारों और कला-दीर्घाओं के बीच कलाकृतियों की कीमत के बंटवारे का बीजगणित जिन्हें मालूम है, वे तय करें कि इस सबको पेड-न्यूज की किस श्रेणी में रखा जाए?

सरकारी और निजी कंपनियां पत्रकारों को अपने समारोह कवर कराने के लिए विमानों से ले जाने लगीं। राज्य सरकारें नामी पत्रकारों को अपने विकास कार्यों का जायजा लेने बुलाने लगीं। विदेशी सरकारें प्रभावशाली पत्रकारों को अपने देश घुमाने लगीं। पर्यटन का सिरमौर बनने के इच्छुक देशों का निजी क्षेत्र पत्रकारों के दल आमंत्रित करने लगा। अप्रत्यक्ष पेड-न्यूज का धंधा दीवाली के चांदी के सिक्के से बहुत आगे निकल गया। अमेरिका से नए-नए सीख कर आए एक नौजवान मीडिया-मुगल ने अपने समूह के संपादकों को पहले तो हुक्म दिया कि वे प्रायोजित दौरे पर गए संवाददाताओं की रपटों के नीचे यह सूचना छापें कि रपट प्रायोजित है। फिर उसने हुक्म सुनाया कि सभी संवाददाता पत्रकार सम्मेलनों में मिले तोहफे कंपनी के स्टोर में जमा कराएं। हाल यहां तक पहुंचा कि देश के मीडिया शिखर पर बैठी इस कंपनी ने अपने अखबारों के संवाददाताओं को खुद के खर्च पर कहीं भी भेजना ही बंद कर दिया और उन्हें सिर्फ प्रायोजित दौरों पर ही जाने की इजाजत दी जाने लगी।

बाद में मुद्रित शब्द को बाकायदा बेचने की संस्थागत शुरुआत अपने को ”अखबार की कीमतों का चैकीदार” घोषित करने वाले इसी मीडिया-समूह ने की। निजी किस्म के सामाजिक समारोहों की खबर और तसवीर शुल्क ले कर छापने से यह धंधा आरंभ हुआ। पेज-थ्री खुलेआम बिकने लगा और इन रपटों में कहीं इस बात का जिक्र नहीं होता था कि खबर छापने के लिए पैसे लिए गए हैं। कंपनी के मालिक ने एक अलग विभाग बनाया और खबरों को छापने का रेट-कार्ड छापा। अब तक प्रायोजित फीचर और विशेष परिशिष्टों का ही जमाना था और उनके बारे में पाठक जानते थे कि इस सामग्री के प्रकाशन के लिए भुगतान लिया गया है। मगर अब खबरों को बेचने का धंधा शुरू हो गया था और पाठक को यह मालूम ही नहीं होता था कि किस फ्लॉप फिल्म को लाजवाब बताने के लिए, किसकी शादी-पार्टी की तसवीरें छापने के लिए और किस उत्पाद के लांच की खबर के लिए बाकायदा एक रेट-कार्ड के आधार पर पैसा वसूला गया है। और इस सबके पीछे मालिक की दलील क्या थी? दलील यह थी कि जब विभिन्न कंपनियों और व्यक्तियों के जनसंपर्क अधिकारियों तथा संवाददाताओं की मिलीभगत से इस तरह की खबरें और तसवीरें उनके अखबारों में छपती ही रहती हैं तो फिर इसका सीधा लाभ कंपनी को ही क्यों न मिले? कंपनी के मालिक अपने को आज भी इसलिए दूध का धुला मानते हैं कि वे सिर्फ मनोरंजन और जीवन-शैली से संबंधित पन्नों को ही बेचते हैं।

चंद बरस पहले इस कंपनी ने एक और काम शुरू किया। उसने एक-एक कर पचासों कंपनियों के साथ यह समझौता किया कि वे उसके अखबारों में विज्ञापन के बदले उसे पैसे देने के बजाय एक निश्चित संख्या में अपने शेयर दे दें। विज्ञापनदाता कंपनी को लगा कि आज के भाव पर शेयर देने में फायदा है और मीडिया कंपनी जानती थी कि शेयर बाजार का धंधा किस तरह चलता है। अब आम पाठक को कौन यह बताएगा कि किस-किस कंपनी से मीडिया समूह का सीधा हित जुड़ा है और उन कंपनियों के उत्पादों के बारे में उसके अखबारों में छपने वाली खबरों से शेयर की कीमतों पर कैसा असर पड़ रहा है? इसे पेड-न्यूज की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं? यह मीडिया-समूह देश का सबसे बड़ा आर्थिक अखबार भी निकालता है। हाल ही में उससे एक डिप्टी एडीटर को मुंबई में एक कंपनी से उसके खिलाफ खबर नहीं छापने के लिए सात लाख रुपए लेते हुए पुलिस ने हिरासत में ले लिया। आरोप है कि एक करोड़ रुपए मांगे गए थे, पच्चीस लाख में सौदा तय हुआ और सात लाख पहली किस्त थी।

लब्बोलुआब यह कि खबरों की तोड़-मरोड़ का खेल राजनीति के मैदान से कहीं बहुत आगे बढ़ कर दूसरे मैदानों में खेला जा रहा है। राजनीति की दुनिया में तो इसकी शुरुआत उन लोगों ने की, जो एक धक्का और देने का नारा लगा कर तमाम मूल्यों को जमींदोज करने को ही सच्चा हिंदुत्व मानते हैं और जो समाजवाद के नाम पर पूंजी के डांस-बार में नंगे नाच रहे हैं। सियासत को आमोद-प्रमोद-रंजन-मनोरंजन में तब्दील करने वालों ने मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए पैसे लुटाने शुरू किए और स्वाधीनता संग्राम के दिनों में तोप का मुकाबला करने के लिए अपने दादा-पड़दादाओं द्वारा निकाले गए अखबारों को उनके बेटों-पोतों ने इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में अपनी टपकती लार सुड़कते हुए कुछ राजनीतिकों की कलाई का गजरा बना दिया। पैकेज और री-चार्ज पैकेज ने अच्छे-अच्छों को डिगा दिया। चुनावी सर्वे के नाम पर टेलीविजन के परदों पर चल रहे खेल को भी सब समझ गए। अच्छा है कि आज सब पेड-न्यूज के खिलाफ एक सुर में आलाप लगा रहे हैं। मार्क्सवादी प्रकाश करात और भाजपा की सुषमा स्वराज मिल कर पेड-न्यूज पर पाबंदी के लिए कानून लाने की बात कर रहे हैं। सभी राजनीतिक दल अब इस सोच में डूब गए हैं कि 32 साल पहले बनी प्रेस कौंसिल आखिर कर क्या रही है और उसे और ज्यादा अधिकार दिए जाने जरूरी हैं। कुछ को लग रहा है कि जन-प्रतिनिधित्व कानून में ऐसे संषोधन किए जाने चाहिए कि पेड-न्यूज की कालिख से छुटकारा मिले। कहा जा रहा है कि निर्वाचन आयोग को इस मामले में कुछ अधिकार दे दिए जाने चाहिए।

जब जागो, तब सवेरा। लेकिन निवेदन यह है कि पेड-न्यूज के सिर्फ राजनीतिक मैदान को देखने से ही काम नहीं चलेगा। इस मैदान से भी कई बड़े मैदान हैं, जहां की चीयरगर्ल्स ज्यादा सनसनीखेज जलवे दिखा रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि राजनीतिकों पर चुनाव के वक्त पड़ने वाले मीडिया के दबाव ने उनकी चीख निकाल दी है और बाकी मैदानों के खिलाड़ी खुशी-खुशी मीडिया के साथ हैं। लेकिन पेड-न्यूज तो पेड-न्यूज है। हमला तो जड़ पर होना चाहिए। इसलिए किसी भी समाज या सरकार को तय तो यह करना होगा कि कैसे सब अखबार मालिक यह सार्वजनिक घोषणा करें कि मीडिया-समूह के अलावा उनके व्यापारिक हित और कहां-कहां जुडे हैं? उनके परिवारजन के व्यवसाय क्या हैं? वे किस राजनीतिक दल की किस कुर्सी पर विराजमान हैं? किस कंपनी में उनके कितने शेयर हैं? कहां किस निर्माण कार्य की ठेकेदारी उनकी किस कंपनी ने ले रखी है? उनके मीडिया-समूह में किस-किस की कितनी पूंजी लगी है? अगर सरकार ने उन्हें मीडिया गतिविधि के लिए रियायती जमीन दी है तो उसके कितने प्रतिशत हिस्से का वे मीडिया गतिविधि के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और कितने का बाकी किसी और व्यवसायिक गतिविधि के लिए? ऐसी ही सार्वजनिक घोषणा अखबारों और चैनलों के संपादक करें, बाकी पत्रकार करें। प्रार्थना कीजिए कि कभी ऐसा दिन आए!

लौट जाती है उधर को भी नज़र, क्या कीजै

फिर गंगा के तट पर जन्म लेने की चाह रखने वाले अमिताभ बच्चन 67 साल के हुए तो देश भर के टेलीविजन परदे खूब थिरके और अखबारों के पन्नों ने भी जश्र मनाया। मैं अमिताभ की अदाकारी का प्रशंसक हूं। लेकिन उनसे सहमत नहीं हो सकता, जो अमिताभ की कारोबरी कामयाबी को भारतीय समाज और संस्कृति का मूल-धन मान बैठे हैं। मैं ऐसे अमिताभवादियों को याद दिलाना चाहता हूं कि बात-बात पर अपने बाबूजी को याद करने वाले अमिताभ ने दो-ढाई बरस पहले जब अपने बेटे अभिषेक की शादी की थी तो इलाहाबाद के कटघर में अपने पिता हरिवंशराय बच्चन के छोटे-से घर और उसमें रहने वालों को वे पूरी तरह भूले हुए थे।

अमिताभ दरअसल एक नया समाजशास्त्र रच रहे हैं। उनका यह समाजशास्त्र आज के आर्थिक मूल्यों पर आधारित है। अमिताभ उस जमाने के तो कभी भी नहीं थे, जब तालपत्र पर मोर के पंख से श्लोक लिखे जाते थे। उन्हें बर्रू की कलम को खडिय़ा में डुबो कर गेरू से पुती तख्ती पर लिखने के संस्कार भी शायद ही मिले हों। इसलिए अभिेषक की शादी के मौके पर जिन टेलीविजन चैनलों और अखबारों की अमिताभ ने कोई परवाह नहीं की थी जो इस बात पर हाय-हाय कर रहे थे कि ठग्गू के लड्डू ले कर कानपुर से मुंबई गए बेचारे प्रकाश मामा भीतर भी नहीं घुस पाए और 36 किलो लड्डू 'जलसा’ के बाहर और 15 किलो लड्डू 'प्रतीक्षा’ के बाहर पत्रकारों और राह-चलतों को खिला कर वापस चले आए। बेगानी शादी के दीवाने इन अब्दुल्लाओं को तब भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि अमिताभ के बेटे की शादी इसलिए नहीं हुई थी कि जो चाहे, खुश हो ले। वह दो आत्माओं के मिलन की नहीं, दो उत्पादों के विलय की गाथा थी। इस शादी के छह साल पहले तक कैनरा बैंक के पास गिरवी रखे 'प्रतीक्षा’ तक अपने बेटे की बारात ले कर गए हमारे महानायक जब दुल्हन लेकर लौटे तो उनके परिवार का उत्पाद-मूल्य यानी ब्रॉंड-वैल्यू रातों-रात 12 अरब रुपए की हो गई थी। बाजार के आकलन के मुताबिक बाप-बेटे दोनों की ब्रॉंड वैल्यू मिल कर तब तक 7 अरब रुपए की थी और अकेली ऐश्वर्या की ब्रॉंड-वैल्यू ने उसमें 5 अरब रुपए का इजाफा कर दिया था। इसलिए घोड़ी पर चढ़ कर अपनी दुल्हन के पास बारात ले कर जाते अभिषेक यूं ही बार-बार अपने दाहिने हाथ को गोल-गोल कर के नहीं नचा रहे थे। ताजा समाजवाद के सबसे बड़े प्रतीक अमर सिंह भी तब इसलिए अपनी टांगें नहीं थिरका रहे थे कि समाज के बुनियादी मूल्य इस विवाह से मजबूत हो रहे थे। वे सब इसलिए फूले नहीं समा रहे थे कि नई जुगल-जोड़ी के बाजार-मूल्य के सामने अब कौन टिकेगा?

आज के अमिताभ दो-ढाई दशक पुराने वाले अमिताभ नहीं हैं। एक जमाने में वे फोन पर खुद आ कर आपको मुंबई के परेल में कहीं हो रही अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान बातचीत के लिए बुला लिया करते थे। इलाहाबाद से लोकसभा में चुन कर आने के बाद अमिताभ दिल्ली में मोतीलाल नेहरू मार्ग के दो-ए नंबर के बंगले में अपना दफ्तर चलाते थे और दिन भर जब वे अपने काम या लोगों से मिलने-जुलने में मशगूल रहा करते थे तो जया बच्चन बगल भी कमरे में मौजूद रहती थीं। 1985 के अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में एक गुनगुनी दोपहर इसी बंगले के लॉन में तब अमिताभ ने मुझ से कहा था कि राजनीति में आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि आखिर अब तक वे दुनिया की सच्चाइयों से कितने अनजान थे और समाज की बुनियादी चिंताओं की उन्हें कितनी कम वाकफियत थी। तब अमिताभ अपनी फिल्म 'मर्द’ का प्रीमियर इलाहाबाद में करना चाहते थे और उनका मन था कि उसकी आमदनी से वे वहां के गांवों में सामुदायिक केंद्र बनाने और सौर ऊर्जा की कुछ योजनाएं शुरू करें। यह तो मुझे नहीं मालूम कि वे अपनी यह छोटी-सी इच्छा कभी पूरी कर पाए या नहीं, लेकिन यह मैं जरूर जानता हूं कि अब से 25 बरस पहले भी अमिताभ की संजीदगी का आलम यह था कि इलाहाबाद के लोगों को अपने सांसद की 'गुमशुदगी’ का विज्ञापन अखबारों में छपवाना पड़ा था। 

अब अमिताभ को शायद ही यह याद होगा कि उनकी मां तेजी बच्चन अक्सर कहा करती थीं कि अमिताभ अगर राजनीति में गया तो मेरी आत्मा हमेशा भटकती रहेगी। लेकिन अमिताभ राजनीति में आने के बाद इस बात का जवाब यह कह कर देना सीख गए थे कि जिंदगी में परिस्थितियां बदलती रहती हैं और मेरी माताजी ने जब यह कहा था तो हालात और थे, आज हालात और हैं। सो, इतना लंबा रास्ता तय कर आज इस मुकाम तक पहुंच गए अमिताभ की संजीदा अदाओं पर अपनी जान निछावार करने वालों की मासूमियत को सलाम करने का मन करता है। जो लोग इस बात से अभिभूत हैं कि अमिताभ ने अपनी कंपनी एबीसीएल बंद नहीं की और सबकी पाई-पाई चुका दी, उन्हें पूरा हक है कि वे इसके लिए अमिताभ के कसीदे पढ़ें। मैं भी मानता हूं कि अमिताभ चाहते तो हाथ खड़े कर सकते थे। लेकिन वे जानते थे कि इससे उनके आगे के सभी रास्ते पूरी तरह बंद हो जाएंगे। इसलिए अगर उन्होंने 90 करोड़ रुपए का अपना कर्ज उतारा तो किसी पर कोई एहसान नहीं किया।

दूरदर्शन का अमिताभ पर 33 करोड़ रुपए बकाया था। सबको नहीं, मगर कुछ लोगों को तो अब भी यह याद होगा कि किस तरह वे यह रकम चुकाने से कतराते रहे थे। उधर मैडम तुसाद के म्यूजियम में अमिताभ का मोम-पुतला बन रहा था और इधर हमारे महानायक सरकारी दूरदर्शन से कह रहे थे कि वे तैंतीस तो नहीं, नौ-दस करोड़ रुपए ही दे पाएंगे। यह नौ बरस पहले की ही तो बात है। जब छोटे भाई अमर सिंह ने बड़े भाई की इस मामले में मदद करने का बीड़ा उठाया और तय हुआ कि अमिताभ 33 की जगह 20 करोड़ रुपए दे देंगे। 9 करोड़ 65 लाख 50 हजार 583 रुपए का पहला चैक लेकर अमिताभ पहुंचे तो दूरदर्शन के तब के मुखिया राजीव रत्न शाह ने ऐसी भाटगीरी की, गोया कोई बकाएदार रकम चुकाने नहीं, दान देने आया हो। अमिताभ ने कहा कि बाकी की रकम अगले तीन बरस में किस्तों में देंगे और दूरदर्शन ने 'जो हुकुम’ मुद्रा में अपने को कृतार्थ किया। सार्वजनिक धन के चुकारे की इस अदा पर जिन्हें जान छिडक़नी हो, वे छिडक़ें। जो भूलना चाहें, वे यह भी भूल सकते हैं कि अमिताभ की कारोबारी गतिविधियों में उस केतन पारीख ने 70 करोड़ रुपए लगाए थे, जिसकी वजह से शेयर बाजार में आम निवेशकों के खरबों रुपए डूब गए। लोगों को यह भूलने की भी आजादी है कि किस तरह पूजा बेदी को दिया अपना इंटरव्यू अमिताभ ने बाद में स्टार टेलिविजन पर रुकवा दिया था और किस तरह प्रणव रॉय के एनडीटीवी ने दिल्ली के ग्रेटर कैलाश थाने में अमिताभ के खिलाफ विश्वास भंग की आपराधिक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।

जिस दौर में 'भारत पर्व’की पहचान सहाराश्री से होने लगी हो और अमिताभ सहारा-गणवेश पहन कर वहां कतार में खड़े रहते हों, जब अमिताभ के जन्म दिन पर जाने के लिए मुलायम सिंह यादव अपने प्रणेता राम मनोहर लोहिया की पुण्य तिथि पर न पहुंच पाते हों, जब सदी के महानायक अपने मुंह-बोले भाई अमर सिंह के साथ बालासाहेब ठाकरे का आशीर्वाद लेने हुलक कर जाते हों; उस दौर में, अमिताभ के शतायु होने की कामना तो मैं कर सकता हूं, लेकिन हर साल उनके जन्म-दिन पर ठुमके लगाना बाकियों को ही मुबारक हो। मैं जानता हूं कि यह समय एक नए अर्थशास्त्र का है। यह समय एक नए समाजशास्त्र का है। अमिताभ को इस नए समाज का शास्त्र लिखने दीजिए। उन्हें अपने दोस्तों के साथ कारोबारी कामयाबी की एक नई इबारत लिखने दीजिए। उनके लिखे को आप नहीं मिटा पाएंगे। जब मिटाएगा, समय ही मिटाएगा।

नोबेल पगड़ी की लाज ओबामा के हाथ

अर्ध-श्वेत बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार इतनी जल्दी मिलने से अचकचा कर हाय-तौबा मचा रहे लोग यह भूल रहे हैं कि ओबामा जब वाशिंगटन के श्वेत भवन पहुचे थे तो अमेरिकी जमीन से अरसे बाद उस लोक संगीत की धुनों ने जोर पकड़ा था, जिनकी स्वर-लहरियों पर चढ़ कर कोई ओबामा दुनिया के राजनीतिक-सामाजिक आसमान का रंग बदलने का काम कर सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की दौड़ के वक़्त फिलाडेल्फिया के संविधान केंद्र में ओबामा की कही बातों ने अमेरिकियों को झकझोर दिया था। अमेरिकियों को शायद पहली बार लग रहा था कि भले ही उन सबकी कहानियां अलग-अलग हों, उनकी उम्मीदें तो एक-सी हैं, भले ही वे सब एक ही जगह से न आए हों, मगर अब उन सबको जाना तो एक ही दिशा में है और इसके लिए पूरे राजनीतिक-सामाजिक ताने-बाने को पूरी तरह उधेड़ कर फिर से बुनने के दिन आ गए हैं। अभी से इस नतीजे पर पहुंच जाना कि दुनिया में शांति का राज कायम करने के ओबामा के इरादे में कोई खोट है, ठीक नहीं होगा। नोबेल की पगड़ी पहने ओबामा की निगाहों को अब इतनी शर्म तो करनी ही होगी कि उनके हाथ से अमन-चैन का कहीं कत्ल न हो। 

ओबामा के उदय का समाजशास्त्र समझने के लिए ज्य़ादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। पिछले बरस जब वे श्वेत भवन की तरफ एक-एक कदम बढ़ रहे थे तो दुनिया को ओबामा की इन बातों में सच की परछाईं नजर आ रही थी कि वे अमेरिका का मुखिया बनने की दौड़ में इसलिए शामिल हुए है कि उन पर अमेरिकी समाज को और ज्यादा न्याय-प्रिय, और ज्यादा समानतावादी और एक-दूसरे का ख्याल रखने वाला बनाने की धुन सवार है। केन्या से आए अश्वेत पिता और कन्सास की रहने वाली श्वेत मां की संतान ओबामा के चुनावी भाषण सुनने की नहीं, गुनने की चीज बन गए थे। भारत के चुनावी माहौल और भाषणों का लंबा अनुभव हमें यह अंदाज लगाने लायक भी नहीं छोड़ता है कि चुनावी प्रचार करते वक्त बुनियादी सामाजिक मुद्दों को इतनी गहराई से भी कोई उठा सकता है। ओबामा ने अमेरिकी गिटार के उस तार को छेड़ दिया था, जिससे सबसे दर्दीले सुर का जन्म होता है।

अपने भाषणों में ओबामा जब यह इशारा करते थे कि किस तरह उनकी अश्वेत पत्नी की रगों में एक गुलाम और उस गुलाम के मालिक का खून दौड़ रहा है तो उनके होठों पर एक दर्द भरी मुस्कान होती थी। वे अपनी चादर पर दिल की गहराइयों से निकले विचारों की कतार बिछाते जाते थे और बार-बार इशारा करते थे कि अनेकता में एकता की जरूरत अमेरिका के समाज को जितनी है, दुनिया के किसी भी समाज को उतनी नहीं। समानता के तमाम अमेरिकी दावों के बावजूद वहां के राष्ट्रपति के चुनाव में पूरी संजीदगी से दौड़ रहे ओबामा जब नस्लीय भेदभाव की तरफ संकेत देते थे तो अमेरिका भर में उनके कहे की ताईद में हिलने वाले सिरों की कमी नहीं थी। वे अपने भाषणों में कहते थे कि कोई कहता है कि मैं जरा ज्यादा ही अश्वेत हूं और कोई कहता है कि मैं पूरी तरह अश्वेत नहीं हूं। ओबामा आहत थे कि नस्लीय नजरिया समाज को श्वेत-अश्वेत ही नहीं, अश्वेत और गेहुंए के बीच भी बांटने लगा है। 47 वर्षीय ओबामा की गीली आंखें अमेरिका की राजनीतिक दीवारों पर एक नई इबारत के लिखे जाने के ठोस संकेत दे रही थीं।

इसलिए मुझे अब भी पूरी उम्मीद है कि ओबामा ओवल-ऑफिस और अपने आसपास की व्यवस्था से बेपरवाह रह कर अपना काम कर पाएंगे। उनके कार्यकाल के चार बरस पूरे होने पर आप देखेंगे कि अमेरिका की शक्ल तो बदल ही रही है, दुनिया की शक्ल भी तब्दील होती जा रही है। इसलिए कि 221 बरस के अमेरिकी इतिहास में यह अपनी तरह का पहला मौका है, जब एक ओबामा के बहाने खुल कर ऐसे मसलों पर औपचारिक सोच-विचार शुरू हुआ है, जिन्हें खामोशी से गलीचे के नीचे खिसका कर चेहरों पर नकली मुस्कान ओढ़ ली जाती थी। ओबामा ने इराक से ले कर अफगानिस्तान तक पसरी अमेरिकी खामियों को मंजूर करने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। वियतनाम से ले कर चेचैन्या और कसोवो तक के मुद्दों पर ओबामा के अपने स्वतंत्र विचार हैं। यही उनकी पूंजी है। 

यह मान लेना कि ओबामा की बातों से गदगद हो रहे अमेरिका में दिलजले गायब ही हो गए होंगे--मासूमियत होगी। यह मान लेना भी बचपना होगा कि ओबामा के पास को तिलस्मी गलीचा है, जिस पर बैठ कर वे जिस दिशा में उड़ेंगे, आसमान गुलाबी होता चला जाएगा। क्योंकि बदलाव की राह पर चलना कोई आसान काम नहीं है। बदलाव की बयार का दोनों हाथ फैला कर स्वागत भला कितने लोग करते हैं? ऐसा होता तो गांधी डरबन के स्टेशन पर ट्रेन से बाहर नहीं फैंके जाते। ऐसा होता तो सत्ता के दलालों को बियाबान में भेजने की शपथ लेने वाले राजीव गांधी की श्रीपेरुम्बुदूर में ऐसी अलविदाई न हुई होती। इसलिए ओबामा की बातों पर थिरकने वाले बहुत हैं तो उनकी बातों पर नथुने फुलाने वालों की भी कमी नहीं है। सो, यह कहानी भी खलनायक-विहीन कैसे हो सकती है?

मैं नहीं जानता कि ओबामा कितना बदलाव ला पाएंगे? लेकिन मैं इतना जानता हूं कि अगर ओबामा के बाद किसी गैर-ओाबामा को भी बाकी दुनिया से जुगलबंदी के रास्ते पर ही आगे चलना होगा। ओबामा के बहाने एक नए युग की शुरुआत के बीज अमेरिका की मिट्टी में अब पड़ गए हैं। ओबामा की इतनी ही सार्थकता बहुत है। इसलिए मुझे तो उन्हें मिले नोबेल से खुशी ही हुई है।

राम-राज्य के स्वयंभू संस्थापक के बारे में

दो साल पहले चंद्रास्वामी ने ऐलान किया था कि अब उनका तन-मन-धन श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए अर्पित है। वह 2007 के मार्च का आखिरी बुधवार था और चंद्रास्वामी बनारस में दोपहर ढाई बजे केदारघाट के विद्या मठ में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के कमरे में घुस कर सवा तीन बजे बाहर आए। बातचीत का मुद्दा था कि रामेश्वरम के श्रीराम सेतु को कैसे बचाया जाए? अरसे बाद चंद्रास्वामी को फिर चौधराहट करने का बहाना मिला गया था। अपने को हमेशा किसी-न-किसी तरह सुर्खियों में बनाए रखने के लिए छटपटाते रहने वाले चंद्रास्वामी ने श्रीराम सेतु की रक्षा के लिए इन दो सालों में क्या किया, यह तो वे जानें, लेकिन जानने वाले इतना ज़रूर जानते हैं कि अब वे फिर मंच की तमाम रोशनियों का रुख अपनी तरफ़ करने का कोई मौका तलाश रहे हैं।

श्रीराम सेतु की बात मैं फिर कभी करूंगा। अभी चंद्रास्वामी की बात करें। मैं चंद्रास्वामी से डेढ़-दो दशक पहले सिर्फ एक बार मिला हूं। दिल्ली से मुंबई जा रही उड़ान के दौरान चंद्रास्वामी के एक नजदीकी पत्रकार ने मेरा परिचय उनसे कराया था। चंद्रास्वामी उस जमाने में आसमान पर उड़ रहे थे और उनके आश्रम में जाने वालों की लंबी कतार रहा करती थी। उन्होंने मुझ से भी किसी दिन अपने आश्रम आने को कहा, लेकिन मुझे उनके पास जाने की कभी इच्छा नहीं हुई। इसलिए अब जब चंद्रास्वामी को देश में राम-राज्य की स्थापना का फितूर फिर सवार हुआ है, आपको यह याद दिलाना जरूरी है कि उनका कोई भी सामाजिक-धार्मिक अभियान राजनीतिक कोण रखे बिना कभी शुरू होता ही नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान जिन्होंने चंद्रास्वामी की भूमिका पर गहराई से निगाह रखी होगी, वे जानते होंगे कि भगवा वस्त्रों से लिपटी इस काया की खोपड़ी किस कदर राजनीति में पगी हुई है। चंद्रास्वामी की समर्थक शक्तियां भले ही अब वैसी मजबूत नहीं हैं, भले ही अब देश में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं है, जिसके घर में उनकी कार बेरोक-टोक कभी भी घुस जाए और भले ही चंद्रास्वामी का अंतरराष्ट्रीय जलवा अब वैसा नहीं रहा है, मगर मौका मिलते ही गुलाटी खाने का जज्बा अब भी चंद्रास्वामी में उसी तरह बरकरार है। ज्योतिष और तंत्र विद्या के आधे-अधूरे जानकार चंद्रास्वामी अपने सितारों की चाल बदलने को बेताब हैं।

मैं नहीं जानता कि चंद्रास्वामी ने राजीव गांधी की हत्या के लिए इस्राइल के एक भाड़े के हत्यारे को दस लाख डॉलर देने की पेशकश की थी या नहीं? मैं नहीं जानता कि हैरॉड्स पर कब्जे को ले कर जब मुहम्मद अल फयाद और टोनी रॉलैंड के बीच तलवारें खिंची हुई थीं तो चंद्रास्वामी ने रॉलैंड को कैसे काबू किया था? मुझे यह भी नहीं मालूम कि तब चंद्रास्वामी ने रॉलैंड से बातचीत टेप की थी या नहीं और ये टेप तब के बेहद बदनाम बैंक बीसीसीएल की मोंटे कार्लो शाखा के लॉकर में छुपा कर रखे थे या नहीं? मुझे यह भी पता नहीं कि बोफोर्स कंपनी के मुखिया मॉर्टिन आर्डबो से मिल कर चंद्रास्वामी ने उनसे यह कहा था या नहीं कि वे उन्हें बु्रनेई का सलाहकार बनवा सकते हैं और इसके बदले में चंद्रास्वामी आर्डबो से क्या चाहते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता हूं कि दो दशक पहले ज्ञानी जैल सिंह को दोबारा राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ऩे के लिए चंद्रास्वामी ने उन्हें चालीस करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा था या नहीं? जब मुझे यह सब नहीं मालूम तो फिर यह मालूम होने का तो सवाल ही नहीं है कि नागार्जुन सागर स्रेयाप आयरन स्केंडल में क्या चंद्रास्वामी को महज 23 साल की उम्र में ही न्यायिक हिरासत में रहने का सौभाग्य मिल गया था?

पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव राजनीति में कितने बड़े संत थे, ये बाकी संत जानते होंगे। मैं तो इतना जानता हूं कि चंद्रास्वामी जैसे संत से उन दिनों नरसिंह राव को खासी ताकत मिलती थी और चंद्रास्वामी की सबसे बड़ी ताकत नरसिंह राव थे। राजस्थान के अलवर जिले के बहरोड़ गांव से चल कर नेमिचंद्र जैन कोई यूं ही चंद्रास्वामी नहीं बन गए। उनका परिवार आंध्र प्रदेश जा कर न बस गया होता और वहां नरसिंह राव से नेमिचंद का संपर्क न हुआ होता तो वे भी लाखों जटाधारियों की तरह रेलवे के किसी प्लेटफॉर्म पर पड़े होते। इसलिए चंद्रास्वामी का यह चमत्कार तो आपको मानना ही पड़ेगा कि ललित नारायण मिश्र, यशपाल कपूर, चरण सिंह, राजनारायण, जगजीवनराम, नानाजी देशमुख और देवीलाल तक कौन है, जिससे उन्होंने कभी न कभी अपनी शागिर्दी न कराई हो। एक जमाना था कि कुर्सी पाने के लिए और अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश भर से अपने हवाई जहाज ले कर राजनेता चंद्रास्वामी के आश्रम में पहुंचते थे और हाथ जोड़े कतार में खड़े रहते थे। चंद्रास्वामी अब से तेरह-चौदह बरस पहले लंदन जाते थे तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर उनसे मिलने को उत्सुक रहा करते थे और श्रीचंद हिंदूजा से ले कर सरोश जरीवाला तक बिचौलिए की भूमिका अदा करते थे। दिनेश पांड्या जैसे किसी हीरा व्यवसायी के निजी निमंत्रण पर अगर चंद्रास्वामी बैंकाक पहुंच जाते थे तो थाइलैंड की सरकार के बड़े-बड़े मंत्री उनकी अगवानी के लिए विमानतल पहुंचने की होड़ लगाया करते थे। अब से दस बारह साल पहले तक किसी सोमचाई चाईश्री चावला के लिए यह हिम्मत करना महंगा पड़ जाता था कि वह चंद्रास्वामी को विश्वास में लिए बगैर कर्नाटक की सरकार के साथ दस अरब रुपए के सौदे का सहमति पत्र हासिल कर ले।

मैंने चौदह साल पहले का वह वक्त नजदीक से देखा है, जब हमेशा हिम्मत से सराबोर रहने वाले राजेश पायलट ने चंद्रास्वामी को गिरफ्तार करने के निर्देश सीबीआई को दे दिए थे। नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे। पायलट उनके आंतरिक सुरक्षा मंत्री थे। तब कानपुर की जेल में बंद बबलू श्रीवास्तव ने रहस्य उजागर किया था कि चंद्रास्वामी के दाऊद इब्राहीम से रिश्ते हैं। मुंबई में दाऊद के कराए बम विस्फोटों के बारूद की बदबू हवा में बाकी थी। बबलू का कहना था कि दीवान भाइयों--विपिन और संदीप—ने चंद्रास्वामी को दुबई में दाऊद से मिलवाया था और बाद में दाऊद ने ही चंद्रास्वामी को दुनिया के सबसे बड़े हथियार सौदागर अदनान खाशोगी से मिलवाया। जाहिर है कि 1995 के सितंबर महीने में तब हवा बेहद गर्म हो गई और पायलट ने सीबीआई से चंद्रास्वामी के खिलाफ कार्रवाई करने को कह दिया। चंद्रास्वामी के सबसे बड़े खैरख्वाह नरसिंह राव परेशान थे। चंद्रास्वामी अपने आश्रम में भीतर से सहमे और ऊपर से उबलते बैठे थे। मिलने वालों की कतार गायब थी। सितंबर के दूसरे सप्ताह के उस सूने शुक्रवार को नरसिंहराव का सिर्फ एक मंत्री चुपचाप चंद्रास्वामी से मिलने उनके आश्रम पहुंचा था। उस शुक्रवार की शाम आते-आते पायलट की गृह मंत्रालय से विदाई हो गई। उन्हें आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया और पर्यावरण मंत्रालय में भेज दिया गया। यह थी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संत-महात्माओं को सताने की सजा। शंकरराव चह्वाण गृह मंत्री थे। पायलट की गृह मंत्रालय से छुट्टी के बाद सीबीआई ने दिखाने के लिए दो-एक बार चंद्रास्वामी से पूछताछ की और बात आई-गई हो गई।

इसलिए दो दशक से भी ज्यादा वक्त से हवा में तैर रहे कई सवाल आज भी जिंदा हैं। सवाल है कि अदनान खाशोगी से चंद्रास्वामी की दोस्ती कैसे हुई थी? खाशोगी जब दिल्ली आए तो चंद्रास्वामी के आश्रम में उनसे कौन-कौन मिलने गए थे? बु्रनेई के सुल्तान से चंद्रास्वामी की ऐसी गहरी दोस्ती क्यों हो गई थी? पामेला बोर्डेस किस्से की सच्चाई क्या थी? भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में चंद्रास्वामी के किस-किस से क्या संबंध थे? इन तमाम सवालों के कुहासे में घिरे चंद्रास्वामी के राम-राज्य स्थापना अभियान से आपको चिंता होती हो या नहीं, मुझे तो होती है। चंद्रास्वामी भले कितने ही कमज़ोर हो गए हों, मेरे जैसों को तो वे अब भी चुटकियों में उड़ा सकते हैं। इसलिए अगर मेरी यह चिंता मेरे लिए मुसीबत बन जाए तो आप चिंता मत करना।

'बहन जी' का असली चेहरा

बहन मायावती का असली चेहरा दरअसल यही है। उन्होंने अपने चेहरे पर एक मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश की थी, मगर राजनीति की पहली ही बारिश ने ही उसे धो डाला। पिछले बरस मई की गर्मियों में अपने हाथी पर सवार होकर मायावती सत्ता के महल में लौटीं तो कांग्रेस समेत सभी के हाथ-पैर फूल गए थे। तिलक, तराजू और तलवार को चार जूते मारने घर से निकली मायावती ने जब सर्वसमाज से नाता जोडऩे का नारा दिया और लखनऊ की गद्दी पर जा विराजीं तो सबको अपने पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी। कुछ लोगों को लगा कि कांशीराम भले ही प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब मन में लिए ही दुनिया छोड़ गए, लेकिन मायावती दिल्ली की रायसीना पहाडिय़ों की तरफ तेजी से बढ़ रही हैं। मगर अब लखनऊ की राजगद्दी संभाले मायावती को ढाई साल हो गए हैं और उनके चेहरे की सर्वजन-मुस्कान पूरी तरह तिरछी हो गई है। भीतर की असलियत बाहर आ गई है और अब यह साफ होता जा रहा है कि कहने को मायावती कुछ भी कहें, उनके जेहन में पड़े पुराने बीज अभी बाकी हैं।
इस बीच राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश के दौरों ने मायावती की पोल पूरी तरह खोल दी है। इन दौरों में वे दलितों से क्या मिले, उनकी झोपडिय़ों में रातें क्या बिताईं, उनके साथ बैठ कर रोटी क्या खाई, मायावती तिलमिला गईं। इसे कोई भी राजनीतिक छिछोरेपन की इंतेहा ही मानेगा कि कोई कहे कि दलितों से मिलने के बाद राहुल एक खास साबुन से नहाते हैं। आखिर मायावती ने ऐसा क्यों कहा? उन्होंने यह भी कहा कि दलितों की झोंपडिय़ों से लौट कर राहुल अपना शुद्घिकरण करते हैं। इस तरह की बातें करने के पीछे मायावती की कौन-सी मानसिकता काम कर रही है? इससे इतना तो पता चलता ही है कि मायावती के दिमाग की बुनियादी बनावट कैसी है?

ये वह मायावती हैं, जिन्हें कांशीराम और इस तरह आंबेडकर तक का वारिस होने का ढोल बजाने का शौक है। ये वह मायावती हैं, जिन्हें राहुल गांधी के साबुन का मनगढ़ंत किस्सा सुना कर दलित समाज को बरगलाने में तो दिलचस्पी है, लेकिन अपने इस समाज को यह बताने की फुरसत नहीं है कि वे सिद्घांत आखिर कहां चले गए, जिन्हें ले कर कांशीराम चले थे? कांशीराम का बताया रास्ता आज बहन जी के राज में शीर्षासन क्यों कर रहा है? जिन भीमराव आंबेडकर के रास्ते पर कांशीराम चले थे, उन आंबेडकर के पास कितने पैसे थे? कांशीराम की वारिस मायावती ने तो निर्वाचन आयोग को पिछले साल हलफनामा दे कर बताया कि उनके पास पचास करोड़ रुपए की संपत्ति है। अब तो उन्हें मुख्यमंत्री बने भी ढाई बरस हो गए हैं और उनकी संपत्ति पता नहीं कितनी हो गई होगी? बहन जी के जन्म दिन पर उनके गले में सजने वाले हीरों के हार जिन्होंने देखे हैं, उनमें से कौन ऐसा है, जिसकी आंखें न चुंधियाई हों? टोनी ब्लेयर दस साल ब्रिेटन के प्रधानमंत्री रहे। उनके पास महज 15 करोड़ रुपए हैं। दुनिया के सबसे बड़े चौधरी बने बैठे जॉर्ज बुश के पास सिर्फ 26 करोड़ रुपए हैं। बहन जी के पास अपनी दौलत को ले कर इतराने की पूरी वजह है, सो, वे खूब इतराएं। लेकिन राहुल गांधी के साबुन की चिंता करने वाली बहन जी से भला यह कौन पूछे कि वे ऐसे किस साबुन से नहाती हैं कि मन का मैल है कि जाता ही नहीं। बहन जी को यह मालूम होना चाहिए कि सर्वसमाज का इत्र ऊपर से मल लेने भर से भारतीय राजनीति के कोनों में बसी सड़ांध दूर नहीं हो जाएगी।

ये वही बहन जी हैं, जो उत्तर प्रदेश के 32वें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते वक्त यह कहते अघा नहीं रही थीं कि अब सर्वसमाज ही मेरा परिवार है। सबको नीले रंग में रंगने की ख्वाहिश मन में पाले बैठी मायावती इतनी जल्दी यह क्यों भूल गईं इस बार का सिंहासन उन्हें इसलिए मिला है कि उसकी बुनियाद समाज के सभी वर्गों के पसीने से गूंधी गई है। मायावती को लग रहा था कि उनका चुंबक इतना ताकतवर है कि समाज के बाकी वर्गों को अपनी तरफ ऐसा खींच लेगा कि बाकी राजनीतिक दल चरमराने लगेंगे। राहुल गांधी के दौरों ने उन्हें बताया कि दलित पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ थे और बाजी फिर पलटने लगी है। मायावती को लगा कि राहुल के दौरों का यह तेवर तो थोड़े दिनों में बहुजन समाज पार्टी के लिए अच्छी-खासी मुसीबत पैदा कर सकता है। उन्हें लगा कि अगर दलितों के मन में घुसाया गया यह अहसास कमजोर पड़ गया कि कांग्रेस उनकी अनदेखी करती है तो सारे किए-कराए पर पानी ही फिर जाएगा। बहन जी को महसूस हुआ कि सर्वसमाज की राजनीति करने के मामले में कांग्रेस के सामने वे तो टिकने से रहीं। सो, मायावती अब अपनी पुरानी गलियों में लौटने की तैयारी कर रही हैं। आप देखेंगे कि आने वाले दिनों में दलितों को उकसाने वाली उनकी भाषा और तीखी होती जाएगी। जल्दी ही वे सर्वसमाज को साथ ले कर चलने के अपने मुखौटे को पूरी तरह नोच कर फैंक देंगी। मगर अब उनके लिए देर हो चुकी है। दलित समाज भी यह जान गया है कि कंधा उसका है और बंदूक मायावती की और इस खेल में मायावती खुद भले ही मजबूत हो रही हैं, दलित तो पिस ही रहा है।

दुनिया में आखिर कहां की राजनीति सामाजिक सरोकारों से प्रभावित नहीं होती? फिर भारत की राजनीति में तो सामाजिक मसले पूरी तरह घुले-मिले हैं। इसलिए भावी राजनीतिक परिद़श्यों को कैनवस पर उकेरने से पहले मायावती और बसपा के बारे में चंद बातें दोबारा याद कर लेना सबके लिए जरूरी है। ये वही मायावती हैं, जिन्होंने साढ़े चार बरस पहले सर्दियों की हलकी शुरुआत होते-होते गुजरात में अपने को जीवित देवी घोषित किया था और नारा दिया था कि तुम मुझे पैसे दो, मैं तुम्हें राजनीतिक ताकत दूंगी। आजादी के लिए रक्त देने का आग्रह करने वाले सुभाषचंद्र बोस के मुल्क में तब हमने राजनीति का यह नया मुहावरा सुना। ये वही मायावती हैं, जिन्हें अपना हित साधने के लिए किसी के भी साथ बैठने से कभी कोई गुरेज नहीं रहा। ये वही मायावती हैं, जो तिलक, तराजू और तलवार को चार जूते मारने के नारे लगाया करती थीं और चंद महीने पहले तक चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थीं कि हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्म, विष्णु, महेश है। और, ये वही मायावती हैं, जो हाथी के माथे पर लगे तिलक को सबसे पहले खुद अपने हाथ से पोंछेंगी।

कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी किसी भी मकसद से खड़ी की हो, मायावती का मकसद बेहद स्वकेंद्रित है। कांशीराम की राजनीति में शायद दलित पहले था और वे खुद कहीं बहुत बाद में थे। बहन जी की राजनीति में उनके अलावा कोई है ही नहीं। दलित तो दूर-दूर तक नहीं। दलित महज नाम को है। दलित राजनीति की बुनियाद में असल में तो मायावती का ताज है, उनके हीरे-जवाहरात हैं। 30 बरस पहले कांशीराम ने दिल्ली के करोलबाग में अपनी पार्टी का दफ्तर यह सोच कर नहीं खोला था कि एक दिन बसपा की राजनीति का केंद्र बिंदु एक प्रतीक के बजाय एक समुदाय की शक्ल ले लेगा। करोलबाग के हरध्यान सिंह रोड पर 5323 नंबर की वह इमारत आज भी मौजूद है और वह कमरा भी, जिसे किराए पर ले कर कांशीराम ने तब अपनी बामसेफ का काम शुरू किया था। इस दफ्तर के शुरू होने के पांच बरस बाद 1983 तक मायावती त्रिलोकपुरी के एक स्कूल में शिक्षिका थीं। उसके अगले बरस से इस दफ्तर में बैठ कर उन्होंने भी कामकाज देखना शुरू किया।

तब से बसपा के कई रंग जमाने ने देखे हैं। एक बात और याद रखने की है कि 1993 तक बसपा को कोई उल्लेखनीय कामयाबी भी हासिल नहीं हुई थी। पहली बार उसे उत्तर प्रदेश में 1993 में तब 66 सीटें मिलीं, जब वह समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ी। सपा और बसपा ने मिल कर सरकार बनाई। इस सरकार के जमाने में आपस में कैसे जूते चले, किसी से छिपा नहीं है। बसपा ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने में भी कोई हिचक कभी नहीं दिखाई। वह कभी इधर से और कभी उधर से हाथ मार कर अपनी राजनीति करती रही है। राष्टीय स्तर पर उसकी हालत यह रही कि 1984 के चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। 89 में उसे सिर्फ दो सीटें मिलीं। 91 के चुनाव में उसे एक ही सीट हासिल हुई। इस हालत में रही बसपा 93 के बाद क्यों और कैसे बढऩे लगी—यह कभी फिर। अभी तो इतना ही कि इस चौथाई सदी में दलित-राजनीति की यमुना में कई बदलाव आ चुके हैं। पहले उसका पानी मटमैला हुआ, फिर गंदा और फिर वह दुर्गंध मारने लगा। अब वह पानी सूखने लगा है। इसलिए अगर मायावती को राहुल गांधी की चिंता सताने लगी है तो समझ लीजिए कि सर्वसमाज पर आधारित राजनीति नई करवट ले रही है और राहुल दलित-राजनीति के नए प्रतीक बन कर उभरने लगे हैं। समाज जिन्हें आदर देता है, उन्हें अपनी मूर्तियां खुद नहीं लगवानी पड़ती हैं। उनकी मूर्तियां तो लोगों के दिलों में होती हैं। और, लोगों के दिल कोई ऐसे ही नहीं जीत सकता।

राजीव गांधी की विदेश नीति के पक्ष में

प्रोफेसर-नुमा कुछ ऐसे लोग आपको आज भी मिल जाएंगे, जो समझते हैं कि हर मामले में उनकी राय ही अंतिम है, जो मूर्खों के स्वर्ग के रहवासी का दर्ज़ा छोड़ने को तैयार नहीं हैं, जिन्हें लगता है कि विदेश नीति के मामले में उनकी अनसुनी की वजह से देश का बहुत नुक़सान हो रहा है और जो सोचते हैं कि वे और सिर्फ़ वे ही अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की नीतियों को क़ायदे की शक़्ल दे सकते हैं। अगर मुझे आला-दिमाग़ और लंबी ज़ुबान वाले ऐसे ही एक शख़्स से पिछले दिनों मुलाक़ात का मौक़ा न मिला होता तो मैं यह लेख लिखने की कभी गुस्ताख़ी नहीं करता। हमेशा फड़फड़ाते रहने की आदत वाला यह शख़्स मुझ पर इसलिए बुरी तरह बिगड़ गया कि मैंने उसकी यह टिप्पणी निगलने से इनकार कर दिया कि राजीव गांधी को विदेश नीति के मामलों में कुछ अता-पता नहीं था और जब वे प्रधानमंत्री थे तो भारत की विदेश नीति में स्थिर-भाव नहीं था।

मैं मानता हूं कि मैं विदेश नीति का विषेषज्ञ नहीं हूं और अगर सक्रिय पत्रकारिता के अपने दिनों में मैंने विदेष मंत्रालय की रिपोर्टिंग की है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं भारतीय विदेश नीति के किसी आइंस्टीन की तरह व्यवहार करने लगूं, जैसा कि सनकी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वयंभू अधेड़ प्रोफेसर करते हैं। लेकिन मेरे लिए यह भी नामुमक़िन है कि जब कोई कहे कि राजीव गांधी विदेश नीति से अनजान थे तो मैं इस बात को गले उतार लूं।

24 बरस पहले राजीव गांधी ने देश के सातवें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, 40 बरस की उम्र में वे भारत के युवतम प्रधानमंत्री थे और 542 सदस्यों वाली लोकसभा में कांग्रेस के 413 सांसदों की अभूतपूर्व जीत के नायक थे। राजीव गांधी ग़रीब-समर्थक उदार अर्थव्यवस्था, आधुनिक दूरसंचार उद्योग, शिक्षा-जगत के सुधारों और विज्ञान तथा तकनालॉजी क्षेत्र के विस्तार कार्यक्रम के शिल्पकार थे। वह दुनिया में दो मज़बूत वैचारिक धड़ों का ज़माना था और राजीव गांधी ने उस दौर में भारतीय विदेश नीति की सच्ची आत्मा को सुरक्षित रखने का काम किया था--उस आत्मा को, जिसका आधार था गुट-निरपेक्षता, शांति और निःशस्त्रीकरण।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर ही राजीव गांधी दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र की यात्रा करने गए। 1985 की गर्मियों में बुधवार की एक चमकीली सुबह वे वाशिंगटन में उतरे। वह 12 जून का दिन था। राजीव गांधी गुट निरपेक्ष आंदोलन के बहुत मज़बूत नेता थे और अमेरिकी उनकी अगवानी के लिए बेहद उत्सुक थे। अमेरिकी राश्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 1949 में हुई पंडित जवाहरलाल नेहरू की यात्रा को याद किया और राजीव जी को बताया कि किस तरह नेहरू जी ने अपनी उस यात्रा के दौरान कहा था कि भले ही हम एक-दूसरे के देशों के इतिहास और संस्कृति से वाकिफ़ हैं, लेकिन असली ज़रूरत इस बात की है कि हम एक-दूसरे को ठीक से समझे और एक-दूसरे के लिए सराहना का भाव रखें। रीगन ने कहा कि नेहरू जी ने तब अपनी या़त्रा को खोज की कोशिश कहा था और फिर राजीव जी की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोले कि और आपकी यह यात्रा आपसी खोज की उसी कड़ी को आगे बढ़ा रही है।

राजीव जी भारत-अमेरिका संबंधों के हर पहलू के गहरे अध्येता थे। उन्होंने अमेरिकी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को अपने तरीके से रीगन के सामने रखने का यह मौक़ा हाथ से नहीं जाने दिया। उन्होंने रीगन से कहाः ”जब मैं यहां आ रहा था तो विमान से मैंने थॉमस जैफरसन का स्मारक देखा, जिन्होंने बहुत ही ठोस और सादे शब्दों में कहा था कि सभी मनुष्य समान और स्वतंत्र बनाए गए हैं“। फिर पीछे अमेरिकी व्हाइट हाउस की तरफ़ एक नज़र डाल कर राजीव जी बोलेः “मेरे पीछे वह इमारत है, जो उन महान हस्तियों का घर रहा है, जो आपके देश को महान बनाने के सपने और ललक का प्रतीक रहे हैं। उनमें से एक अब्राहम लिंकन थे, जिनका कहना था कि कोई भी देश आधा गु़लाम और आधा आज़ाद नहीं रह सकता और आपस में बंटा हुआ कोई भी घर खड़ा नहीं रह सकता। हमारे दौर के सभी सयानों का कहना है कि आपस में खुद ही बंटा हुआ विश्व क़ायम नहीं रह सकता है।“ अब से चौथाई सदी पहले एक भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिकी राष्ट्रपति से खुल कर यह कहना भारतीय विदेश नीति के मसलों पर राजीव जी के स्पष्ट मानस का प्रतीक है। इसके बाद रीगन को यह साफ आश्वासन देना पड़ा कि आतंकवाद से लड़ाई में अमेरिका भारत का पूरा साथ देगा और उन्होंने राजीव जी से कहा कि अमेरिका भारत की गुट-निरपेक्षता का पूरा सम्मान करता है और उसे दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका की अहमियत का भी पूरा अहसास है।

राजीव गांधी स्वतंत्र भारत से सिर्फ़ तीन साल बड़े थे। उस बुधवार के रात्रि भोज के दौरान रीगन से यह कहने की खुद्दारी भी उनमें थीः “हम दोनों ही ज़रा स्पष्टवादी लोग हैं। जैसा सोचते हैं, जैसा मानते हैं, वैसा बोलते हैं। ऐसे में चुप रहना हमें नहीं आता। एक-दूसरे का लिहाज़ ही हमारे आपसी रिश्तों के स्थायित्व का पैमाना है। हम दोनों का ही निर्माण उस भलमानसाहत भरी सहनशीलता से हुआ है, जिससे लोकतांत्रिक भावना का जन्म होता है। यही वजह है कि नीतियों और कुछ ख़ास मसलों पर असहमतियों के बावजूद हमारे देशवासियों के बीच एक मज़बूत रिश्ता लगातार बना हुआ है।“

ठीक दो दशक पहले, जब दुनिया नए साल की अगवानी की तैयारी कर रही थी, चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग के निमंत्रण पर, क्रिसमस के ऐन पहले, एक सोमवार राजीव गांधी बीजिंग पहुंचे। यह दिन था 19 दिसम्बर 1988 का। सोमवार से शुक्रवार तक पूरे हफ्ते राजीव जी चीन में रहे। 34 साल बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन की यात्रा पर था। राजीव जी के नाना नेहरू जी 1954 में चीन गए थे। राजीव गांधी की यह यात्रा भारत-चीन रिश्तों की एक बड़ी घटना थी और न सिर्फ़ चीनी प्रधानमंत्री पेंग ने उनसे लंबी बातचीत की, बल्कि चीन के राश्ट्रपति यांग षांगकुन और चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग के अध्यक्ष देंग श्याओपिंग ने भी राजीव जी से मुलाक़ात कर दोनों देषों से जुड़े मसलों पर चर्चाएं कीं। यहां मैं भारतीय विदेश नीति के आइंस्टीनों को यह याद दिलाना ज़रूरी समझता हूं कि यह वह दौर था, जब समद्रोंग-चू का संकट काफी बढ़ चुका था और चीन की अपनी यात्रा के दो हफ्ते पहले ही राजीव गांधी ने अरुणाचल प्रदेष को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दिया था और जा़हिर है कि चीन ने इस पर ख़ासी हायतौबा मचाई थी। लेकिन एक पखवाड़े बाद ही बीजिंग में राजीव गांधी की भव्य अगवानी की जा रही थी। राजनय की दुनिया में यह थी राजीव गांधी की असली ताक़त।

फिर आया जुलाई-1989। राजीव गांधी मास्को गए। तब तक सोवियत संघ बरकरार था। राजीव जी एक दिन की यात्रा पर वहां गए थे। उस 16 जुलाई को रविवार था और राजीव जी पूरे दिन सोवियत नेताओं से मुलाक़ात करते रहे। राजीव जी और सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर तो खैर बातचीत हुई ही। लेकिन राजीव जो को कभी भी और किसी के भी सामने अपने मन की बात कहने से भला कौन रोक सकता था? उन्होंने गोर्बाचेव के सामने परमाणु अस्त्रों में कमी करने का मसला उठा दिया। उन्होंने गोर्बाचेव से कहा कि यह ख़ामख्याली ही खतरनाक है कि कभी परमाणु युद्ध को किसी सीमा में भी बांधा जा सकता है। ऐसा सोचने से तो परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल को ले कर हिचक ही कम होगी और एक दिन ऐसा आएगा कि पूरा परमाणु युद्ध ही छिड़ जाएगा। सर्वोच्च सोवियत नेता की पत्नी रईसा गोर्बाचेव सोनिया गांधी को खुद अपने साथ घुमाने ले गई थीं और उन्हें क्रांति-पूर्व रूसी कला और स्थापत्य दिखा रही थीं। उधर जब सोनिया जी एक स्कूल में रूसी बच्चों से बात कर रही थीं, इधर राजीव गांधी गोर्बाचेव को अपनी बात समझाने में मसरूफ़ थे।

जानबूझ कर अपना दिमाग़ बनाए बैठे लोग ही राजीव गांधी की विदेष नीति के स्थायी भाव पर सवालिया निषान लगा सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भारतीय हितों की चिंता करने के मामले में राजीव जी इतने दृढ़प्रतिज्ञ थे कि न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा से ले कर स्टाकहोम में छह देशों और पांच महाद्वीपों के षांति प्रयास तक कहीं भी भारतीय नज़रिए को रखने में उन्होंने कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। उनकी सोच और कोषिषों हर जगह लोगों को गदगद कर दिया करती थीं। 21 जनवरी 1988 को राजीव जी स्टाकहोम में थे और वहां उन्होंने खुल कर कहाः ”कुछ हैं, जो दलीलें देते हैं कि परमाणु अस्त्रों से शांति क़ायम रखने में मदद मिलती है। यह झूठ है। व्यवस्थाओं पर काबिज़ लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी। अगर परमाणु हथियार रहेंगे तो एक दिन उनका इस्तेमाल भी होगा। और, आखि़री दिन, यह बात बेमानी हो जाएगी कि उनका इस्तेमाल योजनाबद्ध तरीके से किया गया या दुर्घटनावश हो गया। पुनर्जीवन की सारी उम्मीदें परमाणु मलबे के ढेर में दब जाएंगी। पीछे लौटने की कोई राह बाकी नहीं रहेगी, कोई नहीं बचेगा, यह कहानी कहने वाला भी कोई नहीं होगा। भविष्य के लिए कोई सबक बाकी नहीं रहेगा--कोई भविष्य ही बाक़ी नहीं होगा।”

जून 1988 के उस गुरुवार, एक प्राचीन देश के नवीनतम भविष्य की अगुआई कर रहे, उम्मीद भरी आंखों वाले, एक नौजवान को संयुक्त राश्ट्र संघ की महासभा ने ज़ोरदार आवाज़ में यह बताते सुना कि किस तरह यह सदी इतिहास की सबसे रक्तरंजित सदी साबित हुई है, कि किस तरह दो विष्व युद्धों ने क़रीब पौने आठ करोड़ लोगों को लील लिया, कि किस तरह चार करोड़ और लोग दूसरी लड़ाइयों में मारे गए और किस तरह युद्ध की राक्षसी मशीनें दस करोड़ लोगों को निगल चुकी हैं। राजीव गांधी ने राष्ट्र संघ की दीवारों में जड़ी हर ईंट को साफ़तौर पर बता दिया कि यह सब अब नहीं चल सकता, क्यों कि वे ग़रीब और विकासशील मुल्क ही सबसे ज़्यादा नुक़सान उठा रहे हैं, जो न इस सैन्य गठजोड़ के साथ हैं और न उस सैन्य गठजोड़ के साथ, जो इस दौड़ में कहीं भी शामिल नहीं हैं और जिन्हें हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने की कोई हवस नहीं है। सभी परमाणु हथियारों को पूरी तरह ख़त्म करने की कार्य-योजना पेश करते हुए राजीव जी सबको चेताया कि हथियारों की दौड़ ने राष्ट्रीय और वैष्विक अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ बहुत बझ़ा दिया है और अब वह दिन बेहद नजदीक आ गया है, जब अमीर मुल्क़ों को भी यह अहसास हो जाएगा कि फ़ौजी तामझाम का जो बोझ उन्होंने खुद पर डाल रखा है, उसे संभालने में उनकी भी सांस फूल गई है। दो दशक पहले भारतीय विदेश नीति के बारे में राजीव जी की इस विचार-प्रक्रिया को उनकी दूरदृश्टि मानने से इनकार करने वालों पर तरस ही खाया जा सकता है। उनका नज़रिया एक नई विश्व-व्यवस्था के निर्माण का नज़रिया था।

भारत के पड़ोसियों से व्यवहार के मामले में भी राजीव जी का दिमाग एकदम साफ था। उन्होंने पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने के कई क़दम उठाए, लेकिन हर बार यह भी साफ कर दिया कि सीमा पार के आतंकवाद की अनदेखी वे कतई नहीं करेंगे। वे बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल और मालदीव की तरक़्की में हमेषा सहयोगी की भूमिका निभाने को तैयार रहे। राजीव गांधी का भारत अपने पड़ोसियों के लिए हमेषा वक़्त का साथी बना और जब भी ज़रूरत हुई, उनके साथ खड़ा रहा। 1988 में जब मालदीव में बगावत हुई और वहां की सरकार ने भारत से मदद मांगी तो राजीव गांधी ने हर मुमक़िन मदद की। वे ज़रूरत पड़ने पर अपनी भूमिका के मामले में कभी ऊहापोह में नहीं पड़े।

श्रीलंका में भारतीय शांति सेना भेजना बड़ी हिम्मत का काम था। 1987 की शुरुआत में ही ये संकेत मिलने लगे थे कि श्रीलंका के हालात बदतर होते जा रहे हैं। श्रीलंका हालत से निपटने में भारत से मदद चाहता था। 29 जुलाई 1987 को कोलंबो में श्रीलंका के राश्ट्रपति जे.आर. जयवर्द्धने और राजीव गांधी के बीच एक समझौते पर दस्तखत हुए। भारतीय शांति सेना श्रीलंका भेजी गई। मैं अपने निजी अनुभव से जानता हूं कि वे सचमुच बेहद दिक़्कत भरे दिन थे। मैं उन दिनों नवभारत टाइम्स का संवाददाता था और भारतीय शांति सेना की कार्रवाई को श्रीलंका के जाफना में कवर कर रहा था। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि जाफना के घने जंगलों में हर क़दम पर बिछी लिट्टे की सुरंगों के बीच शांति सेना ने किस अद्भुत बहादुरी और अनुशासन के साथ अपने काम को अंजाम दिया। मेजर जनरल कालकट तब शांति सेना के प्रमुख थे और उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह राजीव गांधी ने उन्हें सख्त निर्देष दिए हुए थे कि न तो ऐसी कार्रवाइयां की जाएं और न ही ऐसे हथियारों का इस्तेमाल हो, जिनसे जाफना के आम नागरिकों की जान जाए। जाफना की बड़ी आबादी तब लिट्टे की बंधक थी और राजीव गांधी ने इन तमिल नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित की थी। मुझे 1987 में हुए संसद के उस शीतकालीन सत्र का वह सोमवार अब भी याद है, जब राजीव जी लोकसभा में भारतीय शांति सेना के पराक्रम और अनुशासन के किस्से सुना रहे थे और अपने चेहरों पर चमक लिए सभी सांसद ज़ोरों से मेजें थपथपा रहे थे। वह 9 नवंबर का दिन था और लग रहा था कि राजीव जी की आंखों से उनका यह मशहूर कथन झांक रहा थाः ”मैं युवा हूं और मेरा भी एक सपना है। मेरा सपना है एक ऐसा भारत, जो मज़बूत है, स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है और मानवता की सेवा में खड़े देशों की सबसे अग्रिम कतार में सबसे पहले क्रम पर खड़ा है।”